गुनहगार हु तेरा
सजा दे - दे
बाद तेरे जीने की मुझको
कोई तो वजह दे - दे
चाहते अपनी सारी मै
खोलकर सामने रख दूँगा
तु आने की अपने दिल मे
फिर से मुझको रजा दे - दे
तडप क्या होती है
मोहब्बत से बिछडने की
जान गया हु मै
तु फिर से अपनी बाहो कि
मुझको पनाह दे - दे
कबूल सारे गुनाह मेरे
आज मुझ पर ही भारी है
तु अपनी शानो - शौकत की
बहुत ही उम्दा...बहुत ही सुन्दर रचना
ReplyDeleteधन्यवाद नितु जी
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