Analyser/Observer
जब हम अकेले होते है
अँधेरे कमरो मे
अकसर रो जाते है |
मन कि कुन्ठा
बहा अश्रुओ मे
चैन का बनाकर बिस्तर
दर्द की चादर ओढकर
सो जाते है |
आँखे मुंदी कि कोई आवाज
पास हमारे आती है
चेहरा अभी-भी सुखा नही है
कि वही बाते फिर से हमे सताती है
लुटा आये हम अपने ही हाथो
अपने जज्बातो की जमीन को
हे धर स्थिर
चित्त अब शरीर छोड चला
मन के भाव जो भी थे |
एक मैल उनमे घुल गया
हर तरफ स्याह फैला
तु कौन था , किधर गया |
घाव ये गहरे
भाव अब मुख पर आते नही
लाज़िम है अब तो
हम किसी से कुछ कह पाते नही |
साँसे भी अपनी
अब बदबूदार हुयी
खुद ही , खुद से
खुद की ये गुनहगार हुयी |
©Ashok Bamniya
बहुत अच्छी रचना, अक़्सर तनाव हावी हो जाता मानस पटल पर और कुंठा का शिकार हो जाता है बेचैन मन.. .
ReplyDeleteबेहतरीन भाव संयोजन
ReplyDeleteबहुत सुंदर! अंतर मन का गहरा अवसाद मन को झकझोर ता सा।
ReplyDeleteअप्रतिम।