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नासमझ

मै खुद को समझता था 
समझदार बडा 

हर किसी के विरोध मे 
मै हो जाता था खडा 

बातो को अपनी 
सत्य ही मै जानता 
बाकी कोई कुछ भी बोले 
सब को गलत ही मानता |

अपनी जीत से मै 
हर किसी पर हावी था 
सच्चे लोगो का बयान भी 
मुझ पर अप्रभावी था | 

बोली मे अपनी 
धौंस मै रखता था 
आँखो मै अपनी 
रोस मै रखता था |

सकल काम मेरे 
कोई ओर ही बनाता था 
बात खुद पर आये तो 
आक्रोश मै रखता था |

किसी ओर का दिया 
खा रहा था 
दाँतो तले ऊँगुली 
दबा रहा था |

#नासमझ खुद के 
गीत गा रहा था |

#नासमझ खुद ही पर 
मुस्कुरा रहा था |

#नासमझ अकेला ही 
चला जा रहा था |

©Ashok Bamniya

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