पड जाता हे आसमान भी कम किसी को देने के लिये,
और हम उसकी चाह मे दुनिया भुलाये बैठे है |
यकिन किया जा सकता हे उसे पाने को लेकर ,
पर ये क्या हम उसकी खातिर अपनी जवानी लुटाये बैठे है |
खैर अब तो इन्त्जार की भी इम्तहा हो गयी
और हम हे की दिन के उजले मे भी दीया जलाये बैठे है |
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