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बेखबर जज्बाती

वो रातों को जगता है शायद उसकी नींदों को किसी ने चुरा लिया
बेबस नहीं
खुश है अब
शायद अब
अपनो ने उसको अपना लिया
बेख्याली मे था लिया फ़ैसला
ज़िन्दगी थी उससे रूठ गयी
साथ मिला क्या तेरा कुछ पल
उसकी तो हँसी ही छुट् गयी
लफ्ज अब शिकायत नहीं करते
डरते है शर्मिंदा है
क्या सामना करे गैरो का
अपने ही कातिल जिन्दा है
रूह तक जहर उतर चुका
सांसे भी रक्त से सनी हुई
आबाद सियासत पहले थी
अब अपनी ही लकड़ी जली हुई
दिन रूठे
मनाने का समय नहीं
अपनो को जताने का समय नहीं
बेखबर जज्बाती
अब मुस्कुराने का समय नहीं।
#बेखबर_जज्बाती
©Ashok_Bamniya